Thursday, 28 December 2017

नाम महातम का अंग

नाम महातम का अंग

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " नाम महातम का अंग " प्रारंभ । राम राम

सोहि कंत कबीर का, दादू का महाराज ।
सब सन्तन का बालमा, दरिया का सिरताज (1) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो राम संत कबीर का पति था, जिस राम का भजन दादू ने किया था तथा जो राम सभी संतों का बालमा है, वही राम मेरा भी पूर्ण पति है एवं वही प्यारा राम मेरे सिर का ताज है । अतः उस राम के बिना सब कुछ निरर्थक है । राम राम!

दरिया तीनों लोक में, ढूँढा सब ही धाम ।
तीर्थ व्रत विधी करत बहु, बिना राम किस काम  (2)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि तीनों लोकों तथा सभी धामों में घूमने के पश्चात केवल यही निष्कर्ष निकला कि ये सभी धाम तथा तीर्थ व्यर्थ हैं । केवल निर्गुण निराकार सत्यरूप राम के नाम का जाप करने में ही जीवन की सार्थकता है । राम राम  !

तीन लोक चौदह भवन, दरिया देख्या जोय ।
एक राम सरीखा राम है, इसा न दूजा कोय (3) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि तीन लोक चौदह भवन का अवलोकन करने के पश्चात मैंने देखा कि राम ही सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ तथा समर्थ है । जो होने वाला कार्य है, उसे परमात्मा रोक देता है तथा जो नहीं होने वाला कार्य है , उसको करके दिखा देता है । अतः ऐसी भावना उदय होगी, तभी परमात्मा से प्रेम होगा । उस परमात्मा के समान संसार में कोई है ही नहीं । अतः राम के समान तो राम है । राम राम  !

तीन लोक चौदह भुवन, ढूँढा सब ही धाम ।
दरिया देख्या निरत कर, एक राम सरीखा राम (4)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कण-कण में ब्रह्म के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं । उनके विचारानुसार समस्त सृष्टि का  रचियता सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी कण-कण में व्याप्त निर्गुण राम ही है । वही तीन लोक चौदह भुवनों को प्रकाशित करने वाला है । राम राम  !

दरिया परचे नाम के, दूजा दिया न जाय ।
या पर तन मन वार के, राखीजे उर माय (5) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि भगवत नाम के सामने सभी वस्तुएं नगण्य हैं । संसार में ऐसा कोई उदाहरण है ही नहीं, जिसे देकर हम राम नाम की महिमा को उजागर कर सकें । अतः इस नाम को हृदय में स्थायित्व देने हेतु एक ही उपाय है कि अपना तन-मन परमात्मा को समर्पित कर दो, इसे ही शरणागति कहते हैं । राम राम  !

कंचन भाजन विष भरा, सो मेरे किस काम ।
‎दरिया बासण सो भला, जामें अमृत राम (6) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सोने का घड़ा है परन्तु अंदर जहर भरा हुआ है तो वह घड़ा कोई काम का नहीं है कयोंकि यदि उसका उपयोग करेंगे तो जहर से हमारी मृत्यु हो जाएगी । इसके विपरीत मिट्टी के घड़े में भी अमृत है तो हम उससे प्यार करेंगे । राम राम  !

जो काया कंचन भई, रत्नों जड़िया चाम ।
‎जन दरिया किस काम की, जां मुख नांहि राम (7) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यदि किसी का शरीर सोने का हो गया है और उसके रोम रोम में रत्न जड़े हुए हैं  परन्तु यदि उसके मुख में राम का नाम नहीं है तो वह किसी काम का नहीं है । क्योंकि परमात्मा तो प्रेम के भूखे हैं । राम राम  !

राम सहित मध्यम भला, गलत कोढ़ होय अंग ।
‎उत्तम कुल कुँ त्याग के, रहिये उनके संग (8) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यदि कोई मध्यम जाति का व्यक्ति है तथा उसके शरीर में कुष्ठ रोग है परन्तु यदि वह राम का नाम लेता है तो अच्छा है । इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति उत्तम कुल का है तथा शरीर से इत्र की सुगंधि आ रही है परंतु हृदय में राम नाम नहीं है तो वह उत्तम नहीं है । अतः ऐसे उत्तम कुल के व्यक्ति का त्याग  करके उस मध्यम कुल के व्यक्ति का संग करना चाहिए । राम राम  !

 कस्तूरी कुँडे भरी, मेली उंडे ठांव ।
‎दरिया छानी क्यों रहे, साख भरे सब गाँव  (9) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि कस्तूरी किसी बर्तन में ढककर  बहुत ही नीचे छिपाकर रख दिया जाए तो भी सुगंध के कारण सारा गाँव साक्षी देने लगता है कि यहाँ कस्तूरी छिपाई हुई रखी है । इसी प्रकार महापुरुष एवं भगवद्भक्त भी छिपे हुए नहीं रह सकते क्योंकि उन्हीं के द्वारा भगवान की भक्ति प्रकट की जाती है । राम राम  !

कूड़ो आलो चाम को, भीतर भरया कपूर ।
‎दरिया बर्तन क्या करे, वस्तु दिखावे नूर  (10) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि मरे हुए जानवर की चमड़ी से बने हुए कूड़े में कपूर भरा हुआ है, परन्तु चमड़े से बना हुआ होने पर भी कपूर तो अपनी सुगंध चारों तरफ फैला देता है । चर्म निर्मित इस शरीर में सुन्न समाधि अपना प्रभाव सबको दिखाकर ही रहती है । राम राम  !

कूड़ो आलो चाम को, जाँ में उत्तम काह ।
‎दरिया संगत घीव की, सिर ले चाल्या साह (11) 

‎आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि ऊँट की खाल के कूड़े के अंदर  घी भर दिया जाता है तो बड़े बड़े सेठ भी उसे सिर पर रखते हैं । कूड़ा तो गंदे चमड़े का बना होता है तथापि सेठ उसे सिर पर रखकर बेचने के लिए जाते हैं क्योंकि उसने घी की संगतकी है । इसी प्रकार जो व्यक्ति परमात्मा के नाम का संग कर लेता है , उसका जीवन पूजनीय हो जाता है । राम राम  !

जन दरिया पुन्य पाप का, थोथे तीरां जूंझ ।
‎करे दिखावा ओर को, आप समावे गूंझ (12) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि पाप और पुण्य दोनों ही एक जैसे ही हैं । जिस प्रकार तीर की नोक में लोहे का सिरा यदि लगा हुआ नहीं है तो वह केवल बांस का थोथा तीर ही कहलाता है । ऐसा तीर लक्ष्य भेदन नहीं कर सकता । इसी प्रकार लोग पुण्य भी करते हैं और लोगों के सामने दिखावा भी करते हैं जो थोथे तीरों से जूंझने के समान है । राम राम  !

पाप पुन्य सुख दुख की, अरट भरत है साख ।
‎जन दरिया रह राम सूँ, या सब ही हो राख (13) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि पाप, पुन्य, सुख और दुःख अरट में लगी हुई डालियों के समान हैं, जिस प्रकार अरट की डोलियां पानी से भर-भर कर खाली होती जाती हैं इसी प्रकार ये पाप पुन्य और सुख-दुख के दिन भी बदलते रहते हैं । परंतु जो व्यक्ति सच्चाई से राम से स्नेह करता है राम ही उसका रक्षक होता है । राम राम  !

जीव विलम्ब्या जीव से, कारज सरे न कोय ।
‎जन दरिया सतगुरु मिले, ब्रह्म विलंबन होय (14)

‎आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जीव तो जीव से दिन-रात मिलते ही रहते हैं परंतु इससे कार्य की सिद्धी नहीं होती किन्तु जब जीव सतगुरू से मिल जाता है तो उसे राम का साक्षात्कार हो जाता है तथा समाधान प्राप्त हो जाता है । राम राम  !

जीव विलंबन झूठ है, मिल मिल बिछड़ जाय ।
‎ब्रह्म विलंबन साच है, रह उर मांय समाय (15) 

‎आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जीव का जो आपस में मिलना है, वह झूठ है क्योंकि वे मिल-मिलकर पुनः बिछुड़ जाते हैं । परंतु राम गुरुदेव का मिलना सत्य है, जो कि मिलने  के  पश्चात सदा ही हृदय में  स्थाई रहता है । राम राम  !

सकल आदि सबके परे, है अविनाशी राम ।
‎उपजे वरते विनस जाय, सो माया रूपी काम (16)
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो सबसे परे अनादि परमात्मा हैं, वे कभी जन्म-मरण में नहीं आते हैं । इसके विपरीत जो उत्पन्न होता है, वृद्धि को प्राप्त होता है और तत्पश्चात जीर्ण होकर विनाश को प्राप्त हो जाता है, वह माया रूपी काम है । राम राम  !

दरिया दस दरवाज में, ता बिच पढत निमाज।
‎ 'र' रो 'म' मो इक रटत है, और सकल बैकाज (17) 
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 आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यह शरीर दस दरवाजे का एक मंदिर है । इस मंदिर में मैं सदा ही नमाज पढता रहता हूँ अर्थात रकार और मकार की रटन करता रहता हूँ । राम राम!

जन दरिया कण नीपजे, सिरो पान गया सूख ।
‎हरियाली मिट कन भया, भीतर भागी भूख (18) 

‎आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हरियाली मिट गई तथा पत्ता सूख गया । जो सिट्टा हरा भरा था उसमें कण आ गये । कच्चे बीज पककर कड़े हो गये जिससे भीतर की भूख समाप्त हो गई । इसी प्रकार भगवद्नाम जपने से हमारे अंदर व्याप्त मान-बड़ाई की भूख, सांसारिक सुखों और भोगों की भूख मिट जाती है । राम राम  !

रवि शशि चाले पूर्व दिश, पश्चिम कहे सब लोय ।
‎दरिया या गत साध की, लखे सो बिरला कोय (19)  
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दुनिया कहती है कि सूर्य और चंद्रमा पश्चिम की ओर जाते हैं परंतु आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि नहीं! ये दोनों पूर्व की ओर ही जाते हैं । सूर्य अपने उद्गम स्थान अर्थात पूर्व से बिछुड़ कर तथा पश्चिम को माध्यम बनाकर पुनः पूर्व में ही जाता है । इसी प्रकार साधकों की  गति भी उल्टी होती है । महापुरुषों के जीवन को कोई बिरले ही पहचान सकते हैं । राम राम  !

दरिया सुमिरे राम को, पारख कीजे जाय ।
‎श्रवण ढ़ल नेतर ढ़ले, देह रसना ढ़ल जाय (20) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि राम नाम जाप करने से साधक के शरीर का प्रत्येक अंग ढ़ल जाता है अर्थात परिवर्तन हो जाता है । जिन कानों से दुनिया की राग द्वेष की बातें सुनते थे, उन्ही कानों से आज ईश्वर की सुधामयी कथाओं का श्रवण करते हैं । जो नेत्र सांसारिक अश्लील दृश्य देखते थे,  वही नेत्र आज राम गुरूदेव का दर्शन करके स्वयं को धन्य मान रहे हैं । राम राम  !

दरिया सतगुरु शब्द ले, करे राम संयोग ।
‎ज्ञान खुले अरू बल बढ़े, देही रहे निरोग (21) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब शिष्य सतगुरू से शब्द लेकर राम-राम  (ध्यान ) करता है, तब कुछ समय पश्चात प्रभु से मधुर मिलन हो जाता है । अतः ऐसी स्थिति में साधक का ज्ञान खुलता है, आत्मबल बढ़ता है तथा देही निरोग हो जाती है । राम राम  !

दरिया प्रेमी आत्मा, करे भजन को गाड़ ।
‎आवे उबासी चौगुनी, भाजन लागे हाड़ (22) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब भी कोई साधक परमात्मा का भजन करता है तो उसे उबासी आती है क्योंकि उसके अंदर का पाप बाहर निकलता है जिससे बार-बार उसका मुँह खुलता है तथा हड्डियाँ भी दुखती है । यदि नींद आने लगती है तो और भी अधिक जोर से भजन में लग जाना चाहिए । राम राम  !

बड़ के बड़ लागे नहीं, बड़ के लागे बीज ।
‎दरिया नाना होय कर,  राम नाम गह चीज  (23)
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि बड़ अर्थात वटवृक्ष  के ऊपर वटवृक्ष नहीं लगता है । वटवृक्ष के ऊपर तो छोटे-छोटे बीज लगते हैं तथा इसी बीज में इतना विशाल वटवृक्ष समाया हुआ होता है । इसी प्रकार राम का नाम छोटा सा है किन्तु इसमें सारा संसार समाया हुआ है । अतः यदि हमें भजन करना है तो छोटा बन कर रहना होगा क्योंकि बड़ा होते ही व्यक्ति में अभिमान आ जाता है । राम राम  !

रसना अन्तर भाइये, लोक लाज सब खोय ।
‎"दरिया " पानी प्रेम का, सींच सहज बड़ होय (24) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि अंतर में हमारी रसना निरंतर जाप करती रहनी चाहिए । यदि कुल की समाज की लाज भगवद्भजन में व्यवधान डालती है तो उस लाज का भी त्याग कर देना चाहिए परन्तु भगवद् नाम जाप का कभी त्याग नहीं करना चाहिए । इस प्रकार से यदि राम नाम रूपी बीज में प्रेम रूपी पानी का सींचन किया जाता है तो राम नाम बहुत बड़ा वटवृक्ष बन जाता है । राम राम  !

दरिया तीनों लोक में, देखा दोय विधान ।
‎गुजरानी गुजरान में, गलतानी गलतान (25)                    

गुजरानी गलतान की, दरिया यह पहचान ।
‎आन रत्ता गुजरान सब, कोई राम रत्ता गलतान  (26)    

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हमने इस संसार में दो ही प्रकार के लोग देखें है । एक तो गुजरानी होते हैं, जो प्रतिदिन दो-चार रूपये कमाकर केवल पेट भरते हैं । दूसरे गलतानी होते हैं जो प्रतिदिन लाखों रुपये कमाकर  मालामाल रहते हैं । इसी प्रकार जो थोड़ा राम-राम करते हैं वे गुजरानी हैं तथा जो अहर्निश नाम जाप करते रहते हैं, वे गलतानी हैं । अतः ऐसे गलतानी का शीघ्र कल्याण हो जाता है । राम राम  !

पाय विसारे राम को, भिष्ट होत है सोय ।
‎रवि दीपक दोनों बिना, अंधकार ही होय (27) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो व्यक्ति सतगुरू से शब्द लेकर कुछ दिन तो नामजाप करता है परन्तु बाद में छोड़ देता है उसका जीवन भ्रष्ट हो जाता है । जिस प्रकार सूर्य भी नहीं है और दीपक भी नहीं है तो अंधकार ही होगा । उसी प्रकार सतगुरू की कृपा भी समाप्त हो जाती है तथा राम रूपी सूर्य भी अस्त हो जाता है तो जीवन अंधकारमय हो जाता है । राम राम!

पाय विसारे राम को, बैठा सब ही खोय ।
' दरिया ' पड़े आकाश चढ़, राखण हार न कोय (28)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो व्यक्ति राम को याद करके फिर राम को भूल जाता है तो उसकी वैसी ही दशा होती है, जैसे कोई आकाश पर ऊँचा चढ़कर अचानक नीचे गिरता है तो वह चकनाचूर हो जाता है, फिर उसकी जिंदगी बच नहीं सकती । राम राम  !

पाय बिसारे राम को, महा अपराधी सोय ।
‎' दरिया ' तीनों लोक में, ईस्यो न दूजो कोय (29)
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि रामजी को भूलना, सबसे बड़ा पाप और अपराध है । जिस ईश्वर ने तुम्हे यह शरीर दिया है, तुम्हारे लिए सब व्यवस्था की है, उसे ही तुम भूल रहे हो तो इससे बड़ा अपराध क्या हो सकता है ? राम राम  !

पाय बिसारे राम को, तीन लोक तल सोय ।
‎जन दरिया अघ जीव का, दिन दिन दूणा होय (30)
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो व्यक्ति परमात्मा को भूल जाता है तो तीन लोकों में भी उसके जैसा अपराधी नहीं मिलेगा । इस प्रकार से वह भगवद् भजन करना तो छोड़ देता है परन्तु उसके पाप की गति तो स्वभाविक ही गतिमान होती है अतः पाप में तो अभिवृद्धि होती ही रहती है । ऐसे व्यक्ति के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भी समाप्त हो जाते हैं । राम राम  !

दरिया निर्गुण नाम है, सगुण सतगुरु देव ।
‎ये सुमरावे राम को, वो है अलख अभेव (31) 
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज ने भगवान के नाम को निर्गुण के रूप में तथा सतगुरु को सगुण के रूप में माना है । सतगुरू तो राम नाम का सुमिरन करवाते हैं तथा परमात्मा अलख अभेव है । अतः ये दोनों ही पक्ष आध्यात्मिक जीवन के लिए कारगर हैं । इन दोनों से प्रेम होगा तभी जीव का कल्याण संभव है । राम राम  !



इति श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का नाम महातम का अंग संपूर्ण हुआ । राम जी राम ।

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com .

डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।
दासानुदास

Friday, 10 November 2017

साच का अंग

साच का अंग
अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " साच का अंग " प्रारंभ । राम राम ।

उत्तम काम घर में करे, त्यागी सबको त्याग । 
दरिया सुमिरे राम को, दोनों ही बड़भाग (1) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि उत्तम काम करने वाला गृहस्थी भी साधु है तथा सबसे उत्तम कार्य तो ईश्वर भजन ही है । त्यागी को आध्यात्मिक जीवन में बाधा पहुँचाने वाले सभी विरोधी तत्वों का त्याग करके भगवद नामजाप करना चाहिए । इस प्रकार से गृहस्थी और त्यागी दोनों के ऐसे पावन आचरण हैं तो वे दोनों ही बड़भागी हैं । राम राम  !

मिधम काम घर में करे, त्यागी गृह  बसाय । 
जन दरिया बिन बंदगी, दोऊँ नरकां जाय (2) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो गृहस्थी , गृहस्थ में रहते हुए मिधम (अनिष्ट ) काम अर्थात पाप, अत्याचार-अनाचार करता है  वह नरक में जाएगा । इसी प्रकार जो त्याग धारण करके पुनः गृहस्थी जैसा ही हो जाता है, वह  त्यागी भी नरक में जाएगा । अतः ईश्वर की वन्दना किये बिना चाहे वह त्यागी हो अथवा गृहस्थी हो सभी नरक में जाएंगे । राम राम  !

दरिया गृहस्थी साध को, माया बिना न आब । 
त्यागी होय संग्रह करे, ते नर घणा खराब  (3) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि गृहस्थी साधु अर्थात भक्त की धन के बिना कोई प्रतिष्ठा नहीं, इसलिए गृहस्थी भक्त यदि धन-संग्रह करता है तो उसमें कोई बुराई नहीं परन्तु त्यागी बन कर यदि कोई धन-संग्रह करता है तो वह बड़ा ही दुष्ट - पापी है । राम राम  !

गृही साध माया संचे, लागत नांहि दोख । 
त्यागी होय संग्रह करे, बिगड़े सब ही थोख (4) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि गृहस्थी साधु यदि धन संग्रह करता है तो उसे कोई दोष नहीं लगता है । परन्तु त्यागी होकर धन संग्रह करने वाले त्यागी के सब काम बिगड़ जाते हैं । राम राम  !

हाथ काम मुख राम है, हिरदे साची प्रीत । 
जन दरिया गृही साध की, याहि उत्तम रीत (5) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि गृहस्थियों को भगवा वेश धारण करके, घर बार छोड़कर वन में जाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि घर में रहते हुए भी कल्याण संभव है । तुम हाथों से कर्म करते रहो तथा मुख से राम-राम करते रहो तो सहज ही मुक्ति हो जायेगी । राम राम  !

हस्त सूँ दो जग करे, मुख सूँ सुमिरे राम । 
ऐसा सौदा ना बणे, लाखों खर्चे दाम (6) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हाथों से दान-पुण्य करता रहे तथा रसना से भगवान का नाम स्मरण करता रहे तो लाखों रूपये खर्च करने पर भी ऐसा सुंदर मौका नहीं हो सकता । राम राम  !

इति श्री  दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " साच का अंग " संपूर्ण । राम राम

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com .

डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।
दासानुदास
9042322241

चेतावनी का अंग

चेतावनी का अंग
अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " चेतावनी का अंग " प्रारंभ । राम राम!
सतगुरु ज्ञान विचार के, तजिये आल जंझाल ।
दरिया विलंब न कीजिए, बेगा राम संभाल  (1) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सभी झूठे जंझालों का त्याग करके सतगुरू के ज्ञान पर विचार करना चाहिए । जब तक स्वय॔ के विचारों का त्याग नहीं करेंगे तथा सतगुरू के विचारों का आदर नहीं करेंगे, तब तक कल्याण संभव नहीं है । इसीलिये आचार्यश्री कहते हैं कि सतगुरू के ज्ञान को सर्वोपरि मानकर तुरंत ही राम नाम  (परम तत्व ) को स्वीकार कर लो । राम राम  !
दरिया श्वास शरीर में, जब लग हरि गुण गाय ।
जीव बटाऊ पाहूणो, क्या जाणू कद जाय (2) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यह शरीर क्षण विध्वंसी है अतः अतिशीघ्र चेत कर ईश्वर भजन में मन लगाने से ही जीव चैतन्य तत्व को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि यह जीव एक मेहमान के समान है । न जाने यह इस तन धन को त्याग कर कब परलोक सिधार जाय । राम राम  !
झूठी कुल की सम्पदा,झूठा तन धन धाम ।
दरिया साचा देखिया, साहिबजी का नाम  (3) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जितने भी सांसारिक संबंध है वे सब मिथ्या हैं, क्षणस्थाई हैं, इनसे सावधान होना ही जागना है । संसार तो झूठा और स्वार्थी है । इस प्रतिभासिक संसार में केवल भगवान का नाम ही सत्य है एवं जीव के सच्चे हितैषी तो परमात्मा  ही हैं । राम राम  !

दरिया ओ जग झूठ है, जैसे नीर कुरंग ।
राम सुमिर जग जीत ले, कर सतगुरु को संग (4)

 आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यह संसार तो मृगमरीचिका के समान मिथ्या है । महापुरुषों का संग करके आत्मज्ञान  ( राम-भजन ) से ही यह जीव चैतन्य हो सकता है । अतः सत्पुरूषों का सत्संग करने वाला तथा राम सुमिरण करने वाला ही वास्तव में इस जगत को जीत सकता है । राम राम  !
लोक लाज कुटुम्ब सूँ, दरिया मोहब्बत तोड़ ।
साचा सतगुरु रामजी, जा सूँ हितकर जोड़ (5) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यदि परमात्मा की प्राप्ति करनी है तो सर्वप्रथम लोक लाज तथा कौटुम्बिक प्रेम का त्याग करना होगा । सतगुरू ही मनुष्य को धन व परिवार की क्षणभंगुरता का  ज्ञान कराकर उसके जीवन में वैराग्य की भावना  भर सकते हैं । इसीलिए इस जगते में प्रेम करने योग्य केवल सतगुरू तथा परमात्मा ही है । राम राम ।

घर धन्धे में पच मुवा, आठ पोहर बेकाम ।
दरिया मूरख ना कहे, मुख सुँ कदे न राम (6) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि अज्ञानी मनुष्य ममतावश अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण में ही सारी सुध-बुध खो बेठा है ।उन्हें अंत में यह सब छोड़ देने पड़ते हैं तथा न चाहने पर भी विवश होकर घोर नर्क में जाना पड़ता है । ऐसे मनुष्य पशुओं से भी गये बीते हैं तथा मनुष्य शरीर धारण करके केवल धरती पर बोझ ही  बढाया है । राम राम  !
कर्म किया हुसियार होय, राम न कह्यो लगार ।
छोड़ गये धन धाम को, बांध चल्यो सिर भार (7) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि मानव की यह दुर्बलता है कि वह सांसारिक कर्म करने में तो रूचि लेता है परन्तु ईश्वर भजन को महत्व नहीं देता है । मरणोपरांत स्वतः ही ऐहिक लौकिक सर्वसंपति का त्याग हो जाता है । केवल बुरे कर्मों का पाप साथ चलता है । राम राम  !
दरिया गर्व न कीजिए,झूठा तन के काज ।
काल खड़ो शिर ऊपरे, निसदिन करे अकाज (8) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यह  शरीर असत्य है किन्तु आज मनुष्य अपने इस पंचभूत निर्मित शरीर से अति प्रसन्न दिखाई दे रहा है तथा परिवार व धन-संपत्ति में निरंतर आसक्त होता जा रहा है । परंतु मौत उसके सिर पर मंडरा रही है। अतः ईश्वर स्मरण करने वाला साधक ही इस मृत्यु के जाल से बच सकता है । राम राम  !
तीन लोक चौदह भुवन, राव रंक सुल्तान ।
दरिया बचे कोई नही, सब जवरे को खान (9) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि तीन लोक चौदह भुवन में सभी जीव, चाहे वह राजा हो रंक हो अथवा सुल्तान हो सबको जाना पड़ेगा । काल सबको खा रहा है । अतः मरने से पहले-पहले अमर हो जाएं, ऐसा काम लेना चाहिए । राम राम  !
जो दीखे बिनसे सही, माया तणा मण्डाण ।
जन दरिया थिर है सदा, राम शब्द निर्वाण (10) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो कुछ भी दृश्यमान पदार्थ दिखाई दे रहा है, वह एक-न-एक दिन विनाश को प्राप्त हो जाएगा परंतु राम नाम सदा ही शाश्वत है । इस प्रकार से तीन लोक चौदह भुवन व यह दृश्यमान जगत सब परिवर्तनशील  है । अतः इनकी ममता त्याग कर राम नाम जाप करना ही जीवन की सार्थकता है । राम राम  !
राम शब्द निर्वाण है, सकल काल को काल ।
जन दरिया भज लीजिये, पूरण ब्रह्म नेह काल  (11)

 आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि राम शब्द ही जीवन में आने वाले सभी कालों और विघ्नों को नष्ट करने वाला है । इसीलिए सच्चे मन से पूर्ण ब्रह्म का निरन्तर स्मरण करते रहना चाहिए । राम राम  !
जन्म मरण सूँ रहित है, खण्डे नहीं अखण्ड ।
जन दरिया भज रामजी, जिन्हा रची ब्रह्मण्ड (12) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि परमात्मा जन्म मरण से रहित है तथा उनका कभी खण्ड टुकड़ा नहीं हो सकता  अर्थात वे अखण्ड हैं तथा उन्होंने ही इस संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना की है, अतः वे ही स्मरण करने योग्य हैं । ईश्वर का स्मरण करना ही पूर्णता को प्राप्त करना है । राम राम  !
सकल आदि सबके परे, है अविनाशी धाम ।
दरिया उपजे ना खपे, ब्रह्म स्वरूपी राम (13) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सर्वप्रथम तथा सर्वपश्चात एक राम का नाम ही अविनाशी है । अतः परमात्मा का नाम न तो कभी उत्पन्न होता है तथा न ही नष्ट होता है । जो इस परम पवित्र तथा सर्वशक्तिमान नाम का सहारा लेकर परमात्मा के ध्यान में निमग्न हो जाता है वही इस संसार में विजयी हो सकता है । शरीर के द्वारा राम भजन व सत्संग करना ही शरीर की उपयोगिता है । राम राम  !

इति श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " चेतावनी का अंग " संपूर्णम । राम 

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com .

डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।
दासानुदास
9042322241

पारस का अंग

पारस का अंग

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " पारस का अंग " आरंभ होता है । राम राम ।

जन दरिया षट् धातु का, पारस कीया नाँव । 
परसा सो कंचन भया, एक रंग इक भाव (1) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि पारस का स्पर्श करते ही लोहे का रंग भी सोने जैसा हो जाता है तथा भाव (कीमत) भी सोने जैसा ही हो जाता है । इसी प्रकार जो शिष्य सतगुरु के सान्निध्य में रहता है,वह दानव से मानव, मानव से देवता और देवता से प्रभु प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है । राम राम  !

दरिया छुरी कसाब की, पारस परसै आय । 
लोह पलट कंचन भया, आमिष भखा न जाय (2)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि कसाई की छुरी को भी पारस के साथ स्पर्श किया जाता है तो वह भी सोना बन जाती है । तत्पश्चात उससे गलत कार्य अर्थात पशु संहार नहीं किया सकता ।इसी प्रकार महापुरुषों का संग करने से मनुष्य के अंदर जो आसुरी संपदा होती है, वह देवी संपदा में परिवर्तित हो जाती है तथा उसके अंदर साधु लक्षण उभर आते हैं । राम राम  !

लोह काला भीतर कठिन, पारस परसै सोय । 
उर नरमी अति निर्मला, बाहर पीला होय (3) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि लोहा बाहर से काला होता है तथा भीतर से भी कड़ा होता है परन्तु पारस से स्पर्श करने के पश्चात वह बाहर से भी पीला हो जाता है तथा भीतर से भी नर्म और निर्मल हो जाता है । इस प्रकार पारस का स्पर्श करने से लोहे में जो परिवर्तन होता है वह स्थाई होता है । राम राम  !

पारस परसा जानिए, जो पलटै अंगो अंग । 
अंगो-अंग पलटै नहीं, तो है झूठा संग (4) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि पारस वही है जिसे परसने के पश्चात लोहा सोना बन जाता है परन्तु यदि वह सोना नहीं बनता है तो उसने झूठा ही संग किया है । इसी प्रकार संतों की संगत में रहकर भी यदि जीव का स्वभाव नहीं बदलता है तो जान लेना चाहिए कि अभी संतों का संग नहीं किया है, क्योंकि सतपुरूषों का संग करने से तो पशु में भी परिवर्तन आ जाता है । राम राम  !

पारस जाकर लाइये, जाके अंग में धात । 
क्या लावे पाषाण को, घस घस होय संताप  (5) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि पारस तो सही है परन्तु यदि वह किसी साधारण पत्थर को स्पर्श करते हैं तो चाहे उसके ऊपर  पारस को कितना ही घसते रहो, वह सोना नहीं बनेगा । इसी प्रकार  जिस मनुष्य के अन्दर मानवता ही नहीं है तो उसे चाहे सतगुरु कितना ही समझाते रहें, उसमें चेतनता नहीं आएगी । राम राम!

दरिया काँटी लोह की, पारस परसै सोय।
धात वस्तु भीतर नहीं, कैसे कंचन होय (6) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि लोहे को जब तपा-तपाकर साफ किया जाता है तब एक तरफ तो शुद्ध लोहा एकत्रित हो जाता है तथा एक तरफ काँटी अर्थात अशुद्ध लोहा एकत्रित हो जाता है । उस लोहे की काँटी के ऊपर कितना ही पारस रगड़ेंगे तो भी वह काँटी सोना नहीं बन सकती । आचार्यश्री आगे फरमाते हैं कि जीवन की दिशा बदल दो । जीवन को भौतिकवाद से तोड़कर आध्यात्मिक वाद की ओर मोड़ दो । राम राम!

इति श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का "पारस का अंग" संपूर्णम । राम राम 

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com .

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उपदेश का अंग

उपदेश का अंग

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " उपदेश का अंग " प्रारंभ । राम जी राम !

जन दरिया उपदेश दे, जा के भीतर चाय ।
नातर गैला जगत से, बक बक मरै बलाय (1) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि उपदेश उसे ही देना चाहिए, जिसके हृदय में उपदेश सुनने की तथा उसे धारण करने की चाहत  (इच्छा ) हो । जिसकी परमात्मा के प्रति आस्था और भावना हो, उसे ही ध्यान बताना चाहिए, अन्यथा कर्महीनों को उपदेश देने से कोई लाभ नहीं होता है । महाराजश्री आगे कहते हैं कि इस विवेकहीन जगत को उपदेश देने हेतु कई महात्मा बक-बक कर मर गये परन्तु जगत तो उसी स्थान पर खड़ा है । राम राम  !

दरिया बहु बकवाद तज, कर अनहद से नेह ।
औंधा कलसा ऊपरे, कहां बरसावे मेह (2) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि बहुत अधिक बातें भी नहीं करनी चाहिए अर्थात लोगों को बहुत अधिक समझाना भी बुरा है, इसकी अपेक्षा तो अनहद अर्थात परमात्मा से प्रेम करना चाहिए । क्योंकि जब तक कलश (घड़ा) उल्टा है तब तक उसके ऊपर कितनी ही वर्षा हो, वह नहीं भरेगा । इसी प्रकार यह दुनिया भी उल्टी है । जिस व्यक्ति का दिमाग उल्टा होता है, उसके हृदय में कभी ज्ञान नहीं उतरता है । राम राम!

बिरही प्रेमी मोम-दिल, जन दरिया निःकाम ।
आशिक दिल दीदार का, जासे कहिए राम (3) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज ने बिरही तथा राम के प्रेमी भक्तों को एवं  जिनके जीवन में परमात्मा   प्राप्ति के अलावा अन्य किसी प्रकार की कोई कामना नहीं है, उन व्यक्तियों को  उपदेश सुनने का अधिकारी बताते हुए कहा है कि जिसके दिल में परमात्मा के दीदार  (मिलन) हेतु आस्तिकता है, उसे ही राम नाम का उपदेश देना चाहिए । राम राम!
जन दरिया उपदेश दे, भीतर प्रेम सधीर ।
गाहक होय कोई हींग का, कहा दिखावै हीर (4) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जिसके हृदय मैं प्रभु के प्रति प्रेम हो तथा विश्वास हो कि मुझे रामजी अवश्य मिलेंगे, उसे ही उपदेश देना चाहिए । क्योंकि हींग खरीदने के इच्छुक ग्राहक को हीरा दिखाया जाता है तो उसे हीरा पसंद नहीं आता है । उसी प्रकार यदि भौतिकवाद की चकाचौंध में फँसे व्यक्ति को उपदेश दिया जाए तो वह उपदेश उसके हृदय में ठहरता नहीं है ।

दरिया गैला जगत से, समझ औ मुख से बोल ।
नाम रतन की गाँठड़ी, गाहक बिन मत खोल (5) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि तू इस संसार से समझ-विचार कर ही बात कर । क्योंकि यहाँ तो मूर्खों का मेला भरा हुआ है । अतः अपनी नामरतन की जो गाँठड़ी है अर्थात जो अनुभव है, वह अनुभव कभी भी दूसरों को नहीं बताना चाहिए   बिना ग्राहक (आवश्यकता ) के जो वस्तु दी जाती है,उसका कोई आदर नहीं होता है । राम राम!
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै समझाय ।
चलना है दिश उत्तर को, दक्षिण दिश को जाय (6) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि इस जगत को किस प्रकार से समझाया जाए । हम इसे उत्तर दिशा की और चलने को कहते हैं तो यह दक्षिण की और चलता है । इस प्रकार यह जगत तो वास्तव में ही गैला(उल्टा) है । हमें यह मानव शरीर रामभजन करने के लिए प्राप्त हुआ है । परंतु अज्ञानी मानव अनैतिक कार्यों के द्वारा इसका दुरुपयोग करने मैं लगा हुआ है । उसे समझाने से कोई लाभ नहीं होगा । राम राम  !
दरिया गैला जगत को, कैसे दीजै सीख ।
सौ कौसाँ चालन करे, चाल न जाने भीख (7) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि इस जगत को कैसे समझाएं ? मानता तो है नही । प्रयत्न तो करते हैं कि मैं सौ कोस चलूँगा परन्तु बीस कोस भी नहीं चल सकता है । जीव में जड़ता है इसीलिए वह आगे नहीं बढ़ सकता । आगे महाराजश्री कहते हैं कि तुम्हारी समझ को तुम गुरूदेव के चरणों में समर्पित कर दो, क्योंकि तुम्हारी समझ सही नहीं है । राम राम  !
दरिया गैला जगत से, कैसे कीजै हेत ।
जो सौ बेरा छानिये, तौहू रेत की रेत (8) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि इस जगत से क्या हेत करना है । जिस प्रकार रेत को कितनी ही बार छाना जाए, उसमें से रेत ही निकलेगी, घी नहीं निकलेगा ।उसी प्रकार संसार को कितनी ही सीख देते रहो परन्तु वह तो अपने दुष्कर्मों में लिप्त रहेगा । राम राम  !
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै सुलझाय । 
सुलझाया सुलझै नहीं, फिर सुलझ सुलझ उलझाय (9) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि इस गैला जगत को कैसे समझाएं ? यह सुलझ-सुलझ कर फिर उलझ जाता है, अर्थात एक बार तो मान लेता है परन्तु पुनः गलती कर देता है । राम राम  !
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै समुझाय ।
रोग नीसरै देह में, पाहन पूजन जाय (10) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि इस मूर्ख संसार को अध्यात्म उपदेश देने से कोई लाभ   नहीं होगा ,क्योंकि यह संसार शरीर में उत्पन्न होने वाले रोग को पत्थर  ( मूर्ति ) की पूजा करके शान्त करना चाहता है, जो कि सर्वथा असंभव है । राम राम  !
भेड़ गति संसार की, हारे गिने न हाड ।
देखा देखी परबत चढ़ै, देखा देखी खाड (11)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि भेड़ों के झुंड में से यदि कोई एक भेड़ गड्ढे में गिर जाती है तो उसके पीछे-पीछे चलने वाली सारी भेड़ें गड्ढे में गिर जाती है । इसी प्रकार इस संसार की भी भेड़  गति है । कोई एक व्यक्ति गलत काम करता है तो दूसरे भी उसका अनुसरण करने लग जाते हैं, परन्तु अच्छे काम का कोई अनुसरण नहीं करता है । इस प्रकार आज लोगों में निर्णय-क्षमता नहीं है तथा न ही विवेक द्वारा सोचने की क्षमता है । राम राम  !
दरिया सौ अंधा बिचै, एक सूझा को जाय ।
वह तो बात देखी कहै, वा के नाहीं दाय (12)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सौ अंधों के बीच में एक दीखने वाला व्यक्ति है तथा उन अंधों को समझाता है कि कागज सफेद होता है परन्तु अंधे उसकी बात नहीं मानते हैं क्योंकि उनकी संख्या बहुत ज्यादा है । इसी प्रकार से दुनिया में अज्ञानी अंधे तो बहुत है तथा दीखने वाले ज्ञानवान बिरले ही हैं जो परमात्मा की बात कहते हैं परन्तु अंधों को वह अच्छी नहीं लगती है । राम राम  !
दरिया सारा अंध को, कहै देख देख कुछ देख ।
अंध कहै सूझै नहीं, कोई पूरबला लेख (13) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज  सभी अंधों  (अज्ञानियों) से कहते हैं कि तुम जरा देखो तो सही। परंतु अंधा कहता है कि मुझे तो कुछ सूझता ही नहीं है । शायद मेरे पूर्व जन्म के कर्म ही ऐसे हें ।  अतः महाराजश्री कहते हैं कि व्यक्ति को कभी भी भाग्य पर निर्भर नहीं रहना चाहिए । भगवत भजन करते रहना चाहिए ।राम  राम !
कंचन कंचन ही सदा, काँच काँच सो काँच ।
दरिया झूठ सो झूठ है, साँच साँच सो साँच  (14) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सोना तो सदा सोना ही रहेगा तथा काँच काँच ही रहेगा । इसी प्रकार असत्य असत्य ही रहेगा तथा सत्य सत्य ही रहेगा । महाराजश्री ने सारे संसार को तथा सांसारिक व्यवहार को झूठा बताया है तथा सत्य की अनुपालना करने हेतु प्रेरणा दी है । राम राम  !
जन दरिया निज साँच का, साँच ही व्यवहार ।
झूठ झूठ ही नीवड़ै, जामें फेर न सार (15) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सत्य का व्यवहार सच्चा  होता है , झूठ हमेशा अन्त में झूठ ही प्रकट होता है , इस कथन में लेशमात्र भी संशय नहीं है । अतः मनुष्य मात्र को सत्य नहीं छोड़ना चाहिए । राम राम  !

दरिया सांच न संचरै, जब घर घालै झूठ ।
सांच आन प्रकट हुआ, तब झूठ दिखावै पूठ (16) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब तक हमारी असत्य के प्रति निष्ठा एवं लगाव है ,  तब तक सत्य हमारे हृदय में प्रकट नहीं हो सकता । जब सत्य प्रकट हो जाएगा तब हमारे हृदय में सत्य परमात्मा स्वतः ही प्रकट हो जायेंगे । राम राम  !
जन दरिया इस झूठ की, डागल ऊपर दौड़ ।
सांच दौड़ चौगान में,सो संतां सिर मौड़ (17)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि झूठ की दौड़ तो डागला (छत) की दौड़ है जिसकी सीमा है परंतु मैदान (चौगान) में चाहे कितना ही दौड़ो, मैदान का अन्त नहीं आता है । अतः सत्य तो संतों के सिर पर मौड़ है तथा असत्य संसार है । आगे आचार्यश्री कहते हैं कि सदा ही सत्यस्वरूप परमात्मा को ही स्वीकार करना चाहिए जिससे हमारे मन की दौड़ मिट सके और हम शाश्वत शांति को प्राप्त कर सकें । राम राम  !
कानों सुनी सो झूठ सब, आंखों देखी साँच ।
दरिया देखे जानिये, यह कंचन यह काँच  (18) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि आँखों से देखी हुई बात सत्य होती है तथा कानों से सुनी हुई बात झूठ होती है , क्योंकि आंखों से देखने पर ही कँचन और काँच के बीच अन्तर मालूम पड़ता है । अतः जब हम सत्यस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं तब हमें यह संसार असत्य लगने लगता है । राम राम !

साध पुरुष देखी कहै, सुनी कहै नहीं कोय ।
कानों सुनी सो झूठ सब, देखी सांची होय (19) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि संत सदैव अनुभव की बात कहते हैं । वे जो परमात्मा के स्वरूप का, उनकी सत्ता का, उनकी लीला का, उनके धाम तथा माया का वर्णन करते हैं  वह सब वे स्वयं अनुभव करने के पश्चात ही कहते हैं । सुनी हुई बातों पर उनका विश्वास नहीं होता है क्योंकि वह झूठी होती हैं । राम राम  !
दरिया आगे साँच के, झूठ किसी एक बात ।
जैसे ऊगे भान के, रात अंधारी जात (20) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सत्य के सामने झूठ कुछ भी नहीं है । जिस प्रकार सूर्य उदय होते ही अन्धेरी रात नष्ट हो जाती है उसी प्रकार सत्य के प्रकट होते ही झूठ का आवरण हट जाता है   । सत्य का अनुभव तो आत्मा में ही किया जा सकता है । राम राम  !

दरिया सांचा राम है, और सकल ही झूठ ।
सन्मुख रहिये राम से, दे सबही को पूठ (21) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि केवल एक रामजी(परमात्मा) ही सत्य है तथा ईश्वर को छोड़कर सारा संसार असत्यस्वरुप है ।अतः सदा ही परमात्मा के सन्मुख रहना चाहिए तथा संसार को पूठ दे देनी चाहिए अर्थात त्याग करके भगवान का नाम स्मरण करते हुए जीवन सफल बनाना चाहिए । राम राम  !
दरिया साँचा राम है, फिर साँचा है सन्त ।
वह तो दाता मुक्ति का, वह मुख राम कहन्त (22) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि एक तो राम सत्य है तथा दूसरे सन्त सत्य हैं । शरीर के छूटने के पश्चात संतो की महान आत्मा सदा-सदा के लिए सत्यस्वरूप परमात्मा में लीन हो जाती है । इसीलिए सन्त सत्य है क्योंकि उन्होंने राम की शरण ली है । राम राम।
दरिया गुरु दरियाव की, साध चहूँ दिस नहर ।
संग रहै सोई पियै, नहीं फिरै तृषाया वहर (23) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जिस प्रकार मीठे पानी के दरिया में से हजारों की संख्या में नहरें निकलती है, उसी प्रकार गुरुदेव तो अथाह सागर के समान हैं तथा उनकी साधना नहरों के समान है जो कि मानवमात्र का कल्याण करती है । संतों के पास जो भी प्यासा आता है, उसे वे पानी पिलाते हैं । अतः सतगुरु का जो संग करता है, वही  वास्तव में पानी पी सकता है अन्यथा सारा जगत प्यासा घूम रहा है । राम राम  !
साधु सरोवर राम जल, राग द्वेष कछु नाहीं ।
दरिया पीवे प्रीत कर, सो तृप्त हो जाहिं (24) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि साधु सरोवर के समान है, जिसमें राम रूपी जल भरा रहता है । अतः इनमें राग     द्वेष के लिए स्थान नहीं रहता । जो महानुभाव संतों से प्रीति कर लेते हैं, वे तो राम रूपी जल पीकर तृप्त हो जाते हैं । राम राम  !
दरिया हरि गुन गाय के, बहूता अंग शरीर ।
बलिहारी उस अंग की, खैंचा निकसै खीर (25) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यह संसार एक गाय के समान है । जिस प्रकार गाय के सींग,नाक, कान इत्यादि अनेक अंग होते हैं तथा दूध भी गाय के पूरे शरीर में संचरित रहता है तथापि उसके किसी भी अंग को खींचने से दूध नहीं निकलता है, दूध तो केवल गाय के स्तनों से ही निकलता है । इसी प्रकार इस गाय के शरीर रूपी संसार में परमात्मा दूध के समान व्यापक होते हुए भी अनंतानंत साधन करने पर भी प्रकट नहीं होते हैं, परमात्मा तो केवल संत रूपी स्तनों से ही प्रकट होते हैं । राम राम!
साधु जल का एक अंग, बरतै सहज सुभाव ।
ऊँची दिशा न संचरै, निवन जहाँ ढ़लकाव (26) 

आचार्यश्री दरियिवजी महाराज फरमाते हैं कि साधु और जल का एकसा स्वभाव होता है ।  वर्षा होती है तो पानी निवान (उतार )पर बहता है, पानी कभी ऊपर की ओर नहीं बहता है । अतः जल मैं नम्रता होती है । इसी प्रकार संतों का भी सहज स्वभाव होता है अर्थात उनके जीवन में अहंकार किचिन मात्र भी नहीं होता है । राम राम  !
दरिया नाके पोल के, इक पंछी आवै जाय ।
ऐसे साधु जगत में, बरतै सहज सुभाय (27) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जिस प्रकार कोई पक्षी मकान के अंदर आता है तो वह किसी के भी कार्य में बाधा डाले बिना ऊपर से ही ( पोल में से ) आता है तथा ऊपर से ही चला जाता है । इसी प्रकार संत भी संसार के अंदर रहकर भी संसार को कष्ट न देते हुए अपनी ऐहलौकिक लीला संवरण कर लेते  हैं । ऐसे साधु जगत में रहते हुए भी जगत की माया से ऊपर उठे हुए हैं । राम राम  !
मच्छी पंछी साध का, दरिया मार्ग नांहि ।
अपनी इच्छा से चलै, हुकम धनी के मांहि (28) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि मछली पानी में चलती है तो उसका कोई मार्ग नहीं होता है तथा पक्षी का भी आकाश में कोई सही मार्ग नहीं होता है । इसी प्रकार संत का भी मार्ग नहीं होता है वे परमात्मा के हुकम में चलते हैं क्योंकि परमात्मा ही उनके धनी ( मालिक, पति ) होते हैं । राम राम  !
साधु चन्दन बावना, एक राम की आस ।
जन दरिया एक राम बिन, सब जग आक पलाश  (29) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जिस प्रकार चन्दन का महत्व समझने वाले व्यक्ति को  केवल चन्दन का वृक्ष ही अच्छा लगता है । उसी प्रकार परमात्मा का महत्व समझने वाला भगवद् भक्त केवल एक राम की ही आशा में लगा रहता है । इस प्रकार से राम तो उसे चंदन के समान लगते हैं तथा सारा संसार आक-पलास के समान लगता है । राम राम  !
नारी आवे प्रीत कर, सतगुरु परसै आण ।
दरिया हित उपदेश दे, माय बहन धी जाण (30) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि स्त्री भी संतों के पास प्रीति(प्रेम) करके आती
है तो उसे भी माँ, बहन और धी (पुत्री ) समझकर उपदेश देना चाहिए अर्थात उन स्त्रियों में कभी अवगुण नहीं देखना चाहिए क्योंकि सभी अवतारों और ईश्वरकोटि के संतों को नारी ही ने प्रकट किया है । राम राम !
नारी जननी जगत की,पाल पोष दे पोस ।
मूर्ख राम बिसार के, ताहि लगावे दोस (31) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि प्रत्येक मानव के जीवन को उत्कृष्ट बनाने का श्रेय मातृ शक्ति को होता है क्योंकि बच्चे की प्रथम गुरू उसकी माता होती है । जो मूर्ख होता है, वह राम को भूलकर नारी के ऊपर दोष लगाता है, तो क्या नारी के अंदर राम नहीं है । राम राम  !
माला फेरे क्या भया, मन फाटै कर भार ।
दरिया मन को फेरिये, जामें बसे विकार (32) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हाथ में तो माला फेरता है परन्तु मन सांसारिक विषय वासना में आबद्ध है तो कोई लाभ नहीं होगा । शास्त्रों में मन को ही जीव के बंधन व मोक्ष का कारण माना जाता है । अतः मन को फेरना बहुत आवश्यक है । राम राम  !
जो मन फेरे राम दिस, कल विष नासै धोय ।
दरिया माला फेरते, लोग दिखावा होय (33) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो साधक मन को परमात्मा की ओर मोड़ देता है तथा मन के ऊपर चढ़ी विषय-वासना रूपी मैल को भगवत नाम रूपी पानी से धो देता है, वही वास्तव में परम लाभ (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है । अन्यथा कई लोग तो हाथ में माला लेकर संसार के सामने दिखावा करते हैं । राम राम  !
कण्ठी माला काठ की, तिलक गार का होय ।
जन दरिया निजनाम बिन, पार न पहुंचे कोय (34) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि कण्ठी,माला,तिलक यह सब तो बाहरी वेशभूषा के चिन्ह मात्र हैं । अतः साधु बन गया तो क्या हुआ? जब तक नामजाप (साधना) करके परम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं करेंगे, तब तक कल्याण नहीं होगा । राम राम  !
पाँच सात साखी कही, पद गाया दस दोय ।
दरिया कारज ना सरै, पेट भराई होय (35) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि पाँच सात साखी कहकर सुना दी अथवा सुंदर ढंग से पद गाकर सुना दिया इससे पेट तो अवश्य भर सकता है, परंतु कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती । जब तक जीवन में उन बातों को क्रियान्वित नहीं कर लेंगे । राम राम  !
साँख जोग पपील गति, विघ्न पड़ै बहु आय ।
बावल लागै गिर पड़ै, मंजिल न पहुंचे जाय (36) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज ज्ञानयोग और भक्तियोग की तुलना करते हुए कह रहे हैं कि भक्तियोग की तुलना में ज्ञानयोग कठिन है । जिस प्रकार चींटी पेड़ के ऊपर चढती है तो मार्ग में बहुत  विघ्न आते हैं तथा अंत में हवा लगते ही वह पुनः नीचे गिर जाती है । राम राम  !
भक्ति सार बिहंग गति,जहँ इच्छा तहँ जाय ।
श्री सतगुरु रक्षा करै,विघ्न न व्यापै ताय (37) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि भक्तियोग पक्षियों की गति है । पक्षी आकाश में जहाँ इच्छा हो, वहाँ उड़ सकता है उसके मार्ग में कोई विघ्न नहीं आता है । इसी प्रकार भक्ति सदा ही निर्बाध गति से आगे बढ़ती रहती है, क्योंकि भक्त की सदा ही श्री सतगुरु रक्षा करते हैं । राम राम!

इति श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का "उपदेश का अंग "संपूर्ण हुआ । राम राम ।

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com .

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Friday, 8 September 2017

अपारख का अंग

अपारख का अंग

अथ श्री  दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " अपारख का अंग " प्रारंभ । राम !

हीरा हलाहल क्रोड़ का, जा का कौड़ी मौल ।
जन दरिया कीमत बिना, बरतै डाँवाँडोल (1) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हीरा तो बहुत कीमती तथा करोड़ों रूपयों का है परन्तु जब यह हीरा किसी मूर्ख व्यक्ति के हाथ में आया तो वह हीरे की कीमत नहीं जानने के कारण उसका उपयोग नहीं कर सका । इसी प्रकार परमात्मा की सत्ता होने पर भी परमात्मा का महत्व नहीं जान पाने के कारण आज संसार नरक और चौरासी में जा रहा है । राम राम  !

हीरा लेकर जौहरी, गया गिंवारे देश ।
देखा जिन कंकर कहा, भीतर परख न लेश (2) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि एक बहुत बड़ा जौहरी बहुत ही कीमती हीरा लेकर किन्हीं मूर्खों के गाँव में पहुँचा ।उसने हीरा खोलकर उन्हें दिखाया तो वह मूर्ख कहने लगे कि यह तो  एक चमकीला पत्थर है क्योंकि उन्हें परख नहीं थी । महाराजश्री कहते हैं कि मुझे इस बात का आश्चर्य होता है तथा दुःख भी होता है कि प्रभु की सत्ता  वर्तमान होने पर भी लोग उस सत्ता को स्वीकार करके अपना कल्याण नहीं कर पा रहे हैं । राम राम!

दरिया हीरा क्रोड़ का, कीमत लखै न कोय ।
जबर मिले कोई जौहरी, तब ही पारख होय  (3) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हीरा तो करोड़ों रुपयों का है परन्तु जब कोई जौहरी मिलता है , तब ही उसकी परीक्षा हो सकती है । इसी प्रकार जिस व्यक्ति के हृदय में भक्ति का अंकुर है वही महापुरुषों को पहचान सकते हैं । राम राम  !

आई पारख चेतन भया, मन दे लीना मोल ।
गाँठ बाँध भीतर धसा, मिट गई डाँवाँडोल (4) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब परीक्षा हुई, तब उस मूर्ख के हृदय में चेतनता आई तथा उसे हीरे के प्रति लगाव हुआ । तत्पश्चात उसने हीरे को एक  सुरक्षित स्थान पर रखकर ताला लगा दिया तथा करोड़पति बन गया । इसी प्रकार जब मानव को भगवत नाम के महत्व के विषय में ज्ञान हो जाता है, तब वह राम नाम रुपी हीरे संग्रह करके अत्यंत धनवान हो जाता है । राम राम!

कंकर बाँधा गाँठड़ी, कर हीरा का भाव ।
खोला कंकर नीसरा,झूठा यही सुभाव (5) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि आज वर्तमान में मानव समाज की दौड़ केवल अर्थसंग्रह को लेकर हो रही है । रात-दिन एक  करके आज हम यह कंकर ही इकट्ठे कर रहे हैं । परंतु मन में भले ही इन्हें हीरे मान लो परन्तु मरते समय यह सब कंकर हो जायेंगे । इस देव दुर्लभ मानव शरीर की महिमा केवल इसके सदुपयोग से ही है । राम राम!

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " अपारख का अंग " संपूर्ण हुआ । राम

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com .

डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।
दासानुदास
9042322241

चिन्तामणी का अंग

चिन्तामणी का अंग 

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणिजी का "चिन्तामणी का अंग " प्रारंभ । राम !

चिंतामणि चौकस चढ़ी, सही रंक के हाथ ।
ना काहू के सँग मिलै , ना काहू से बात (1) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब किसी गरीब व्यक्ति को चिन्तामणी प्राप्त हो जाती है , तो वह किसी का संग नहीं करता है । क्योंकि यदि लोगों को पता लग गया तो यह खबर राजा तक पहुंच जाएगी तथा राजा उससे चिन्तामणी छीन लेगा । इसी प्रकार जो परमात्मा रूपी चिंतामणि प्राप्त महापुरुष होते हैं वे जगत का संग नहीं करते हैं । राम राम!

दरिया चिंतामणि रतन, धरयो स्वान पै जाय ।
स्वान सूंघ कानैं भया, टूकां ही की चाय (2) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब यह चिंतामणी कुत्ते के सामने रखी गई तो कुत्ता बेचारा चिंतामणी के पास आया, उसे सूंघा तथा सूंघकर दूर हो गया  क्योंकि उसके मन में तो पेट भरने हेतु रोटी प्राप्त करने की ही इच्छा थी । जब तक परमात्मा की कीमत के विषय में हमें ज्ञान नहीं है, तब तक हम परमात्मा के नाम को स्वीकार नहीं कर रहे हैं । परन्तु जब सतगुरु की कृपा से भगवत नाम के विषय में जानकारी हो जायेगी, तब हम एक क्षण के लिए भी नाम को अपने हृदय से निकाल नहीं पायेंगे  । राम राम!

दरिया हीरा सहस दस, लख मण कंचन होय । 
चिंतामणी एकै भला, ता सम तुलै न कोय (3) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हजारों की संख्या में हीरे हैं तथा कई लाख मन सोना है और चिंतामणी एक ही है , तथापि यह सारी संपति चिंतामणी की तुलना में नगण्य है । अतः महाराजश्री ने भगवत नाम को चिन्तामणी के समान बताया है । यदि आपने राम नाम का जाप कर लिया तो सब कुछ कर लिया । राम राम!

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का चिंतामणी का अंग संपूर्ण हुआ । राम 

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com .

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मिश्रित साखी का अंग

मिश्रित   साखी   का   अंग अथ   श्री   दरियावजी   महाराज   की   दिव्य   वाणीजी   का  "  मिश्रित   साखी   का   अंग  "  प्रारंभ  ...